Friday, April 22, 2011

नज़्म

मैं नज़्म हूँ,
अपने शायर की नज़्म
वो शायर जो मेरा महबूब भी है और मेरा रचयिता भी है
जो मुझे गढ़ता है, ढालता है, पालता भी है
सजाता भी है और संवारता भी
जो मुझे बनाता भी है और कभी कभी,
कभी कभी मेरे कुछ नक्श मिटा भी देता है
मैं पूरी तरह उसकी हूँ
उसीकी अमानत, उसीकी जायादात...

वो कभी अकेले में मुझे जी भर के प्यार करता है तो
मैं भी उसके प्यार को अपने रोम रोम में समेट लेती हूँ
और कभी महफिलों में मुझे बड़े शान के साथ पेश करता है तो
मैं अपने आँचल में उसके लिए ढेर सारी वाह वाही बटोर लाती हूँ

कभी वो अपनी महबूबा के हुस्न से मुझे सजाता है
तो कभी यारों की यारी से भरता है
कभी दुनियादारी के काँटे बिछाये मेरे बिस्तर पर
तो कभी ममता की लोरी सुना के सुलाया मुझे

कभी जो वो नशे में हुआ तो, उसकी जाम से छलके लफ़्ज़ों को
मैं हिफाज़त से रख लेती हूँ...जानती हूँ के होश में आते ही वो ढूँढेगा इन्हें
कभी रस्ते पे चलते कोई धुँधला सा ख़्याल छु गया उसे तो,
मैं उस ख़्याल को थाम लेती हूँ...कभी फुर्सत में बैठ के रंग भरेंगे उसमें

वो कितने ही लफ़्ज़ों से सजाता है मुझे
कभी कभी एक ही लफ्ज़ बार बार पहनाता है...जानती हूँ, ये उसका पसंदीदा लफ्ज़ है
कभी किसी लफ्ज़ को पहनकर देख ही रही होती हूँ के
वो तुरत उतार देता है उस लफ्ज़ को...कहता है...ये नहीं वो
और मैं नए लफ़्ज़ों में ढलने लगती हूँ

बहुत चाहता है मुझे वो
उसकी दुनिया मेरे ही इर्द गिर्द घूमती है बस
और मेरी तो दुनिया ही वही है
जानती हूँ मैं और वो भी जानता है
के जो खुबसूरत दुनिया उसने रची है
उस दुनिया में ले नहीं जा सकता है मुझे
जो रंग भरे है उसने मेरी तसवीरों में
वो शायद कहीं न मिले उसे

फिर भी हमदोनों खुश हैं...बहुत खुश
एक दुसरे के साथ
एक दुसरे के अन्दर
हम हमेशा यूँ ही रहेंगे
शायर और नज़्म कभी अलग नहीं होंगे
मैं नए रूप में मिलती रहूँगी उससे
वो यूँ ही चाहता रहेगा मेरे हर रूप को
नज़्म हमेशा रहेगी, अपने शायर के साथ.

Monday, April 18, 2011

बादल

ये बारिशों से भरे बादल, पहाड़ों की ढलानों से बड़े एहतियात से उतरते हैं .... बादलों के पाँव भारी लगते हैं...