लिबास बदलते रहते हो तुम मेरे
मौके पर, ज़रुरत से, रस्म से..बदलते ही रहते हो लिबास मेरे...तैयार हूँ हर रंग में ढलने को ...
पर मेरी रूह बदलने की आज ये कैसी साजिश है???
drops of madness...बावरी बूँदें
कुछ बूँदें हॆं...मेरी अपनी हॆं.. बावरी हॆं..छ्लकती रहती हॆं.. मुझे बहुत प्यारी हॆं... सोचा, यहाँ उन्हें जमा करती रहूँ .
Wednesday, October 12, 2011
Friday, April 22, 2011
नज़्म
मैं नज़्म हूँ,
अपने शायर की नज़्म
वो शायर जो मेरा महबूब भी है और मेरा रचयिता भी है
जो मुझे गढ़ता है, ढालता है, पालता भी है
सजाता भी है और संवारता भी
जो मुझे बनाता भी है और कभी कभी,
कभी कभी मेरे कुछ नक्श मिटा भी देता है
मैं पूरी तरह उसकी हूँ
उसीकी अमानत, उसीकी जायादात...
वो कभी अकेले में मुझे जी भर के प्यार करता है तो
मैं भी उसके प्यार को अपने रोम रोम में समेट लेती हूँ
और कभी महफिलों में मुझे बड़े शान के साथ पेश करता है तो
मैं अपने आँचल में उसके लिए ढेर सारी वाह वाही बटोर लाती हूँ
कभी वो अपनी महबूबा के हुस्न से मुझे सजाता है
तो कभी यारों की यारी से भरता है
कभी दुनियादारी के काँटे बिछाये मेरे बिस्तर पर
तो कभी ममता की लोरी सुना के सुलाया मुझे
कभी जो वो नशे में हुआ तो, उसकी जाम से छलके लफ़्ज़ों को
मैं हिफाज़त से रख लेती हूँ...जानती हूँ के होश में आते ही वो ढूँढेगा इन्हें
कभी रस्ते पे चलते कोई धुँधला सा ख़्याल छु गया उसे तो,
मैं उस ख़्याल को थाम लेती हूँ...कभी फुर्सत में बैठ के रंग भरेंगे उसमें
वो कितने ही लफ़्ज़ों से सजाता है मुझे
कभी कभी एक ही लफ्ज़ बार बार पहनाता है...जानती हूँ, ये उसका पसंदीदा लफ्ज़ है
कभी किसी लफ्ज़ को पहनकर देख ही रही होती हूँ के
वो तुरत उतार देता है उस लफ्ज़ को...कहता है...ये नहीं वो
और मैं नए लफ़्ज़ों में ढलने लगती हूँ
बहुत चाहता है मुझे वो
उसकी दुनिया मेरे ही इर्द गिर्द घूमती है बस
और मेरी तो दुनिया ही वही है
जानती हूँ मैं और वो भी जानता है
के जो खुबसूरत दुनिया उसने रची है
उस दुनिया में ले नहीं जा सकता है मुझे
जो रंग भरे है उसने मेरी तसवीरों में
वो शायद कहीं न मिले उसे
फिर भी हमदोनों खुश हैं...बहुत खुश
एक दुसरे के साथ
एक दुसरे के अन्दर
हम हमेशा यूँ ही रहेंगे
शायर और नज़्म कभी अलग नहीं होंगे
मैं नए रूप में मिलती रहूँगी उससे
वो यूँ ही चाहता रहेगा मेरे हर रूप को
नज़्म हमेशा रहेगी, अपने शायर के साथ.
अपने शायर की नज़्म
वो शायर जो मेरा महबूब भी है और मेरा रचयिता भी है
जो मुझे गढ़ता है, ढालता है, पालता भी है
सजाता भी है और संवारता भी
जो मुझे बनाता भी है और कभी कभी,
कभी कभी मेरे कुछ नक्श मिटा भी देता है
मैं पूरी तरह उसकी हूँ
उसीकी अमानत, उसीकी जायादात...
वो कभी अकेले में मुझे जी भर के प्यार करता है तो
मैं भी उसके प्यार को अपने रोम रोम में समेट लेती हूँ
और कभी महफिलों में मुझे बड़े शान के साथ पेश करता है तो
मैं अपने आँचल में उसके लिए ढेर सारी वाह वाही बटोर लाती हूँ
कभी वो अपनी महबूबा के हुस्न से मुझे सजाता है
तो कभी यारों की यारी से भरता है
कभी दुनियादारी के काँटे बिछाये मेरे बिस्तर पर
तो कभी ममता की लोरी सुना के सुलाया मुझे
कभी जो वो नशे में हुआ तो, उसकी जाम से छलके लफ़्ज़ों को
मैं हिफाज़त से रख लेती हूँ...जानती हूँ के होश में आते ही वो ढूँढेगा इन्हें
कभी रस्ते पे चलते कोई धुँधला सा ख़्याल छु गया उसे तो,
मैं उस ख़्याल को थाम लेती हूँ...कभी फुर्सत में बैठ के रंग भरेंगे उसमें
वो कितने ही लफ़्ज़ों से सजाता है मुझे
कभी कभी एक ही लफ्ज़ बार बार पहनाता है...जानती हूँ, ये उसका पसंदीदा लफ्ज़ है
कभी किसी लफ्ज़ को पहनकर देख ही रही होती हूँ के
वो तुरत उतार देता है उस लफ्ज़ को...कहता है...ये नहीं वो
और मैं नए लफ़्ज़ों में ढलने लगती हूँ
बहुत चाहता है मुझे वो
उसकी दुनिया मेरे ही इर्द गिर्द घूमती है बस
और मेरी तो दुनिया ही वही है
जानती हूँ मैं और वो भी जानता है
के जो खुबसूरत दुनिया उसने रची है
उस दुनिया में ले नहीं जा सकता है मुझे
जो रंग भरे है उसने मेरी तसवीरों में
वो शायद कहीं न मिले उसे
फिर भी हमदोनों खुश हैं...बहुत खुश
एक दुसरे के साथ
एक दुसरे के अन्दर
हम हमेशा यूँ ही रहेंगे
शायर और नज़्म कभी अलग नहीं होंगे
मैं नए रूप में मिलती रहूँगी उससे
वो यूँ ही चाहता रहेगा मेरे हर रूप को
नज़्म हमेशा रहेगी, अपने शायर के साथ.
Monday, April 18, 2011
बादल
ये बारिशों से भरे बादल, पहाड़ों की ढलानों से बड़े एहतियात से उतरते हैं .... बादलों के पाँव भारी लगते हैं...
Wednesday, January 5, 2011
आज जो होती मैं पास तुम्हारे-
आज जो होती मैं पास तुम्हारे-
सूरज के कुछ धूप सुलगा कर, और धरती की कुछ खुशबु लेकर, इस दिन को बुलाती तेरे घर...और मिन्नत करती उससे
यूँ ही सदियों तक आने को
आज जो होती मैं पास तुम्हारे-
चूम के तेरे चाँद से माथे को, चाँद ही उतार लाती मैं आँगन में तेरे...तेरा घर सजाने को
आज जो होती मैं पास तुम्हारे-
पलकों पे तुम्हारी अपनी पलके सजा के,
तुम्हारी आँखों से वो सारे ख्वाब चुनती, उन्ही ख़्वाबों की एक चादर बुनती...तुझे ओढाने को
आज जो होती मैं पास तुम्हारे...
सूरज के कुछ धूप सुलगा कर, और धरती की कुछ खुशबु लेकर, इस दिन को बुलाती तेरे घर...और मिन्नत करती उससे
यूँ ही सदियों तक आने को
आज जो होती मैं पास तुम्हारे-
चूम के तेरे चाँद से माथे को, चाँद ही उतार लाती मैं आँगन में तेरे...तेरा घर सजाने को
आज जो होती मैं पास तुम्हारे-
पलकों पे तुम्हारी अपनी पलके सजा के,
तुम्हारी आँखों से वो सारे ख्वाब चुनती, उन्ही ख़्वाबों की एक चादर बुनती...तुझे ओढाने को
आज जो होती मैं पास तुम्हारे...
Monday, October 25, 2010
Inside-Outside
Outside
Black
Granite ugly rocks
Turbulent mud-laden sea-
Dark frightening clouds hovering above-
Inside
Whiteness, purity
Clean sheets, soft pillows
Gentle care, soft words
Solitude
And my agony-
--by Amitabh Bachchan
Black
Granite ugly rocks
Turbulent mud-laden sea-
Dark frightening clouds hovering above-
Inside
Whiteness, purity
Clean sheets, soft pillows
Gentle care, soft words
Solitude
And my agony-
--by Amitabh Bachchan
Saturday, July 24, 2010
मैं और तुम....
मैं कितनी ही बूँदों से भरी हुई एक नदी सी
उछलती भी हूँ, बहती भी हूँ
कभी उफान पर हूँ तो कभी छिछली सी
कितने भंवर भी हैं मुझमें
और कभी स्वच्छ, शांत, निर्मल सी
बहते रहना मेरी क़िस्मत
और मेरी फ़ितरत भी
थक सी जाती हूँ कभी कभी....
तुम क्यों बाहें फैलाए खड़े हो यहाँ से वहाँ तक,
दूर से ही दिखते हो,
तुम्हारी ही तरफ बह रहे हैं मेरे क़दम बरबस
कहीं तुम्हारा नाम समंदर तो नहीं?????
उछलती भी हूँ, बहती भी हूँ
कभी उफान पर हूँ तो कभी छिछली सी
कितने भंवर भी हैं मुझमें
और कभी स्वच्छ, शांत, निर्मल सी
बहते रहना मेरी क़िस्मत
और मेरी फ़ितरत भी
थक सी जाती हूँ कभी कभी....
तुम क्यों बाहें फैलाए खड़े हो यहाँ से वहाँ तक,
दूर से ही दिखते हो,
तुम्हारी ही तरफ बह रहे हैं मेरे क़दम बरबस
कहीं तुम्हारा नाम समंदर तो नहीं?????
Friday, July 23, 2010
एक काफ़िर दोस्त की तरफ से -
में ज़िन्दगी की बारिश में हरदम सराबोर रहती हूँ..
कुछ बूँदें हैं प्यार की
कुछ दोस्ती की
कुछ अपनों से अनबन की
कुछ गैरों से मोहब्बत की
कुछ बचपन के मासूमियत की
कुछ जवानी के पागलपन की
ये बूँदें साथ चलती हैं हमेशा मेरे
में इन बूंदों में भीगी हुई रहती हूँ हमेशा
इनमें से कुछ बूंदों ने सयाना बनाया हैं तो कुछ बांवरी थी जिन्होंने बताया के ज़िन्दगी किताबों के बाहर भी होती हैं...
बस येही पेश कर रही हूँ....
उम्मीद हैं आपको कहीं न कहीं अपनी ज़िन्दगी का अक्स दिखाई देगा इनमें...
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